सुनहरी सुबह – एक लघु कथा

"मैं बचपन से ही ऐसी हूं मैं बाते अपने दिल में ज्यादा देर तक नहीं रखती पर कुछ बाते मेरे दिल और दिमाग से निकलने का नाम नहीं लेती।" – पढ़िए गोल्डी मिश्रा की लिखी ये सुनहरी लघु कथा – "सुनहरी सुबह"
 सुनहरी सुबह – एक लघु कथा

सुनहरी सुबह -एक लघु कथा

आज मुझे लगभग तीन साल हो गए है इस कंपनी में। कभी– कभी लगता है ज़िंदगी कितनी रफ्तार से चल रही हैं। अभी कुछ साल पहले ही मैंने मास्टर्स डिग्री पूरी की और अब नौकरी। शायद यही है ज़िंदगी। सब इसी ज़िंदगी को चाहते है जहां सब कुछ एक क्रम में हो। बचपन से काफी सपने मैने देखे थे उन में से कुछ पूरे है कुछ अधूरे पर अब मैने जो है उसमें जीना सीख लिया है। मेरा नाम अदिति है, मैं दिल्ली से हूं। मैं मध्यम वर्गीय परिवार से हूं जहा सुबह से रात तक सब कुछ समय के हिसाब से चलता है मतलब सब कुछ एक क्रम अनुसार चलता हैं। आज की सुबह कुछ अलग थी मतलब रोज़ से कुछ अलग। आज सुबह मुझे फूल की दुकान पर काम कर रहीं अम्मा ने एक गुलाब दिया और मुझसे कहा की–" आज की तुम्हारी सुबह सुनहरी हो। " मैंने मुस्कुरा कर गुलाब ले लिया। आज मैं जब अपने रोज़ के काम निपटा रही थी तभी मुझसे वरिष्ठ अधिकारी ने मुझे कहा – "अदिति, कमरा नंबर – १२ से लाल रंग की फाइल को एक बार देख लो" मैने कहा –"हां मैं देखती हूं"!

मैने सीढियां चढ़ी मै कमरा नंबर १२ में पहुंच गई। कमरे में अंधेरा था पर खिड़की खुली थी खिड़की के पास कोई खड़ा था। मैं घबरा गई और घबराहट में मेरी चीख निकल पड़ी। खिड़की के पास खड़े व्यक्ति ने पीछे मुड़कर देखा और वे बोले– " अरे! आप घबराइए मत । मैं माफी चाहता हूं आपको डराने के लिए। असल में मैं यहाँ अपने दोस्त का इंतज़ार कर रहा था। उसने मुझे कमरा नंबर १२ में रुकने को कहा था पर काफी देर हो गई है वो आया नही है। मैं बस लाइट बंद करके जा ही रहा था की मुझे इच्छा हुई इस सुनहरी धूप को निहारने की मैं बस खिड़की से बाहर देख रहा था और इतने में आप आ गई। मैं सच में माफी चाहता हूं आपको डराने के लिए। मुझे माफ कर दीजिए।" मैने कहा –"कोई बात नही मैं भी माफी चाहती हूं मैं बिना दरवाजा खटखटाए अंदर आ गई दरअसल मुझे लगा कमरे में कोई नहीं है मैं भी माफ़ी चाहती हूं"।

हम बात कर ही रहे थे की मेरा पैर किसी चीज से टकरा गया। कमरे में इतना अंधेरा था कि मुझे कुछ दिख ही नही रहा था। मैं पास पड़ी मेज़ पर गिरने ही वाली थी लेकिन मुझे उस अनजान व्यक्ति ने बचा लिया। पर उनके हाथ में काफी चोट आ गई। असल में मेज़ पर कांच का काफी सामान रखा हुआ था जिससे उनके उल्टे हाथ में चोट लग गई। काफी खून भी बहने लगा। ये सब देख कर मैं घबरा गई। मैने अपनी जेब से अपना रुमाल निकाला और झट से उनकी चोट को साफ किया और उनके हाथ के घाव को अच्छे से बांध दिया। पता नही क्यूं मेरी आंखों में अजीब से आंसू थे उनकी चोट को देख कर। आखिर मेरी वजह से उनको चोट लग गई। मैं जल्दी से खड़ी हो गई और मैंने उनसे माफी मांगी मैने उनसे कहा –" ये सब कुछ मेरी वजह से हुआ है मुझे माफ़ कर दीजिए। आपका हाथ काफी घायल हो गया है। आप दवाई ले लेना।" इतना कह कर मैं कमरे से बाहर चली गई। मेरा गला काफी भर चुका था। मैं अपने कैबिन में जाकर फूट– फूट कर रोने लगी । आखिर मेरी वजह से उस इंसान को इतनी चोट लगी। एक घंटे बाद काफी रोने के बाद मैंने खुद को शांत किया। मुझे अचानक लगा मैं कुछ भूल रही हूं। तभी याद आया लाल रंग की फाइल !!!!! मैं जल्दी से अपने कैबिन से बाहर निकली और सीधा ऊपर चली गई। कमरा नंबर १२ के बाहर रोहित सर और वो व्यक्ति खड़े थे। वे कुछ बात कर रहे थे। मैने उनके हाथ की चोट देखा और मैं कमरे में चली गई। जब मैं फाइल का काम खतम कर के बाहर जाने के लिए उठी। मैं देखा मेज़ पर खून के निशान थे। मुझे सच में काफ़ी बुरा लगा। मैं कमरे से बाहर आ गई।

लगभग छः बज चुके थे । मेरे घर जाने वक्त हो गया था। मैने ऑफिस से निकल कर अपने घर के लिए मेट्रो ली। मेट्रो के इस सफ़र में रोज़ मैं संगीत सुनते हुए आती हूं । पर जो आज सुबह हुआ वो अभी भी मेरे दिमाग में चल रहा था और आज संगीत कुछ अच्छा नही लग रहा था। मुझे नहीं पता वो कौन था पर मुझे उसके लिए बुरा लग रहा था। आज मैने काफी अलग एहसास को अनुभव किया था। आज से पहले मुझे ऐसा कभी महसूस नहीं हुआ था। आज का दिन काफी अजीब था। अगर वो मुझे दुबारा कभी मिला मै उससे फिर माफी मांग लूंगी। मेरी वजह से आज उसके हाथ पर चोट लग गई। पता नही वो कौन था। मेरा घर आ गया था। मैं मेट्रो स्टेशन से बाहर निकली और अपने घर की तरफ़ पैदल चलने लगी। अभी भी मेरे दिमाग से सुबह जो हुआ वो निकला नहीं था। मैं बचपन से ही ऐसी हूं मैं बाते अपने दिल में ज्यादा देर तक नहीं रखती पर कुछ बाते मेरे दिल और दिमाग से निकलने का नाम नहीं लेती।

मैं घर पहुंच गई । मैने अपना बैग और जूते उतारे और मैं अपने कमरे में चली गई । मेरी मां ने मुझे चाय दी मैने उनसे कहा –" मुझे कुछ अच्छा नही लग रहा पेट भरा सा है मैं आज रात का खाना नही खाऊंगी!" मेरी मां ने पूछा –"तुम ठीक हो ना?" मैने कहा–" हां" चाय खत्म करके मैं बिस्तर पर लेट गई। रात काफी हो चुकी थी पर मेरी आंखों में नींद नहीं थी। मैने अपनी डायरी निकली और आज के दिन में जो हुआ उसपर एक कविता लिख दी। दरअसल मुझे लिखने का शौक है। मैं जब १७ साल की थी मैं तब से लिख रही हूं। मैने कई लेखन प्रतियोगिता में भाग लिया और मैं उनमें से काफी में जीती भी । काफी देर अपनी डायरी में कुछ लिखने के बाद मैने उसको बंद करके रख दिया। आज मेरी आंखों में नींद नहीं थी। मुझे खुद नहीं पता ऐसा क्यूं हो रहा था। पर आज के दिन की एक खास बात थी – मैंने एक अजीब अन कहे एहसास को महसूस किया था जो पहले कभी महसूस नहीं हुआ। शायद आज की सुबह वाकई में सुनहरी थी।

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