जीवन तो एक ही मिला है किंतु इन हज़ारों सपनो का क्या ? कोई व्यक्ति इस छोटे से जीवन काल मे तमाम ज़िम्मेदारियों को पूरा करे भी तो कैसे ? 29 दिसंबर1991 को रची अपनी इस कविता में वस्तुतः मैंने अपने मम्मी -डैडी को जिया है....उनकी आँखों को पढ़ा है आज जीवन के इस उत्तर- काल मे दृश्य-श्रव्य माध्यम की तमाम तकनीकों से जूझते हुए कुछ तस्वीरे जो कभी मैने यूंही खींची थी उनका साथ लेकर और अपना स्वर देकर यह प्रस्तुत किया है । आपकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा में |कविता, स्वर, छायांकन व संपादन : डॉ पूजा वर्मा