कश्मीर के पहलगाम में हुए हालिया आतंकी हमले की ख़बर जब सामने आई, तो सोशल मीडिया पर हर जगह शोर था — सैनिक शहीद हुए, गोलीबारी हुई, अफसोस जताया गया, गुस्सा उभरा। मगर इस शोर के बीच कुछ ऐसा था जो मुझे भीतर तक झकझोर गया।
मैं सोचने लगा — उस फौजी की अपनी दुनिया कैसी रही होगी? क्या वो भी बारिश में भीगना पसंद करता था? क्या उसे छुट्टियों का इंतज़ार रहता था? क्या वो भी घर की दाल-चावल मिस करता था?
इन्हीं सवालों से जूझते हुए, मेरे मन में यह रचना आकार लेने लगी — ‘शौर्य’।
यह कविता उस शहीद सैनिक की कल्पना है, जो अपनी मौत के बाद हमें अपने दृष्टिकोण से अपनी अधूरी कहानी सुना रहा है। यह उसकी अंतिम आवाज़ है, उसकी अंतिम सांस — जिसे हम सब तक पहुँचाना मुझे मेरा फ़र्ज़ लगा।
✒️ शौर्य – आतंक के खिलाफ एक अमर प्रतिज्ञा
मैं घने जंगल के बीच, नंगे पाँव पौधों को पानी देता नीले आकाश के नीचे रहने वाला ‘इंसान’ देखता हूँ ख़ुद को।
मुझे पंछियों से बातें करना, गुनगुनाना और धीमी बारिश में हवा संग पत्तों को झूलते देखना बेहद पसंद है।
मुझे अच्छी लगती है मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू, घड़े का ठंडा पानी और पास के स्कूल में सुबह प्रार्थना करते बच्चों की आवाज़।
ख़ुश हो जाता हूँ मैं भी जब माँ कुछ मन का खिला देती है और पापा मेरे पसंद की शर्ट पहन काम पर जाते हैं तो।
मुझे छुट्टियाँ, दोस्त और पहाड़ तीनों अच्छे लगते हैं;
रफ़्तार हो, मौसम शानदार हो तो जान में जान आती है,
मेरे लिए मेरी मातृभूमि सब से पहले आती है।
मैं पेशे से फौजी हूँ और दिल से देशभक्त,
मेरे वतन का पानी अमृत और मेरी धरती ही मेरा मंदिर है
मुझसे पूछो तो प्रेम का सही और एकमात्र अर्थ यही है।
कल कश्मीर के पहलगाम में मैं गोली का शिकार हो गया।
कैसे ये तो तुम जानते ही हो ; मैंने कोशिश की पर उनके पास बंदूक थी। उन्होंने गोली मेरे दिल पे ही दाग दी। क्यों ये तो तुम जानते ही हो।
सब इतना अचानक और इतना जल्दी हुआ कि कुछ समझ ही नहीं आया। क्या मौत ऐसी ही होती है? या कुछ और जिसे मैं जी ही नहीं पाया।
पता नहीं। ख़ैर; तुम्हें क्या लगता है?
अब जो मैं इस दुनिया में नहीं हूँ , तो मैंने जो पौधे छोड़ दिए थे अपने पीछे उन्हें पानी तो मिलेगा ना ?
क्या पंछी अब भी घर की छत पर आएँगे ?
मेरे गीतों का क्या होगा? मेरे बिना मुर्झा तो नहीं जायेंगे?
पापा मेरे पसंद वाली शर्ट पहनेंगे?
माँ मेरे मन का खाना बना पाएगी?
मेरी बहन मेरे दोस्त .. इतने सारे सवाल और इतना सारा काम जो रह गया उनका क्या? मेरी दुनिया ऐसे ही बर्बाद हो जाएगी ?
नहीं !
जैसे सूर्य विदा लेता है शाम से फिर सवेरे को मिलने वापिस आता है - मैं भी लौटूँगा, नंगे पाँव, मिट्टी की सौंधी ख़ुशबू लिए जंगलों के बीच; और काट कर सारे विषैले दाँत, काल की बलि चढ़ा नीले आकाश की छाती पर एक नई सुबह लिखूँगा। मैं जियूँगा।
- अपूर्व